हाईकोर्ट का फैसला: पुलिस थानों के अंशकालिक सफाईकर्मियों को भी मिलेगा न्यूनतम वेतन का अधिकार

प्रयागराज: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पुलिस थानों में कार्यरत अंशकालिक सफाई कर्मियों के वेतनमान से जुड़े एक मामले में महत्वपूर्ण आदेश देते हुए स्पष्ट किया कि पुलिस थानों में काम करने वाले अंशकालिक सफाईकर्मी, चाहे उनकी नियुक्ति अस्थायी ही क्यों न हो, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के तहत न्यूनतम भुगतान पाने के पूर्ण हकदार हैं। ललितपुर जिले के मदनपुर और बरार नाराहट थानों में कार्यरत सफाईकर्मियों-गोविंद दास व अन्य की याचिका स्वीकार करते हुए न्यायमूर्ति जेजे मुनीर की एकलपीठ ने कहा कि वर्ष 2019 के शासनादेश द्वारा निर्धारित 1,200 रुपए मासिक मानदेय भ्रामक है और अनुसूचित रोजगार के लिए विधिक सुरक्षा को समाप्त नहीं कर सकता।

 मामले के अनुसार याचियों ने दावा किया कि वे जुलाई 2022 से सुबह 7 बजे से शाम 7 बजे तक कार्यरत हैं, परंतु उन्हें केवल 1,200 रुपए प्रतिमाह दिया जा रहा है, जो मनरेगा श्रमिक से भी कम है। पुलिस अधीक्षक ने दावा किया कि सफाईकर्मी केवल 1.5 घंटे में प्रतिदिन अंशकालिक आधार पर काम करते हैं, इसलिए उन्हें सरकारी आदेश के अनुसार तय मानदेय से अधिक भुगतान नहीं किया जा सकता। इस विवाद पर निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए हाईकोर्ट ने सिविल जज (सीनियर डिवीजन) को आयुक्त नियुक्त किया। 

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उनकी रिपोर्ट में स्पष्ट पाया गया कि पुलिस थानों के विस्तृत परिसर की सफाई 1 से 1.5 घंटे में संभव ही नहीं है और साफ-सफाई पूरे दिन चलने वाला कार्य है। इस पर कोर्ट ने पुलिस महानिदेशक सहित अधिकारियों को निर्देश दिया कि याचियों को नियुक्ति की तारीख से बकाया सहित न्यूनतम वेतन का भुगतान सुनिश्चित किया जाए। याची भले नियमित कर्मचारी न हों, लेकिन वे पुलिस विभाग के अधीन प्रतिष्ठान में श्रम दे रहे हैं, इसलिए वे 1948 के अधिनियम की सुरक्षा से बाहर नहीं हो सकते। कोर्ट ने माना कि “झाड़ू लगाना और सफाई करना” 2005 से अनुसूचित रोजगार है और पुलिस विभाग धारा 2(ई) के तहत ‘नियोक्ता’ की परिभाषा में आता है, इसलिए अधिनियम के तहत निर्धारित न्यूनतम मजदूरी कार्यकारी आदेशों पर प्राथमिकता रखती है। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि 2022 में अकुशल श्रमिक का न्यूनतम पारिश्रमिक प्रति घंटे 62.45 रुपए था, जो 2025 में बढ़कर 70.47 रुपए हो गया, जबकि याचियों को इससे बहुत कम भुगतान किया गया। अंत में कोर्ट ने राज्य के निर्णय को “पूरी तरह त्रुटिपूर्ण” करार देते हुए निर्देश दिया कि याचियों को न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के अनुसार पूरी सेवा अवधि का वेतन दिया जाए। बकाया राशि भी चुकाई जाए।

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