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जरूरी है आपसी सहमति

देश में लगभग हर समय किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते है। जो लोग ‘एक देश, एक चुनाव’ का समर्थन करते हैं, उनका तर्क है कि आदर्श आचार संहिता सरकार द्वारा परियोजनाओं या नीति योजनाओं की घोषणा करने के रास्ते में आ जाती है। यदि चुनाव पूरे वर्ष में बार-बार होते रहते हैं, तो देश में एक समानांतर अर्थव्यवस्था के पनपने की संभावना हमेशा बनी रहती है।
ध्यान रहे देश में एक साथ चुनाव को लेकर केंद्र सरकार द्वारा एक कमेटी गठित की गई। 23 सितंबर को पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाले पैनल ने अपनी पहली बैठक की। साथ ही कहा जा रहा है कि विधि आयोग मौजूदा विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाकर या घटाकर 2029 से लोकसभा के साथ सभी के चुनाव एक साथ कराने के फॉर्मूले पर काम कर रहा है।
हालांकि इस पर रिपोर्ट देने की कोई समय सीमा तय नहीं है। एक साथ चुनाव कराना एक ऐसा मुद्दा है जिस पर अतीत में विधि आयोगों और संसदीय समितियों द्वारा विचार किया गया है। कुछ राजनीतिक दलों का तर्क है कि मतदाता राज्य चुनावों में भी राष्ट्रीय मुद्दों पर मतदान करेंगे और इससे बड़े राष्ट्रीय दल राज्य और लोकसभा दोनों चुनावों में जीत हासिल कर सकते हैं, जिससे क्षेत्रीय दल हाशिए पर चले जाएंगे।
2018 में न्यायमूर्ति बीएस चौहान की अध्यक्षता वाले 21वें विधि आयोग ने भी एक मसौदा रिपोर्ट में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की सिफारिश की थी। लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के पहले आम चुनाव 1951-52 में एक साथ आयोजित किए गए थे। यह प्रथा वर्ष 1957, 1962 और 1967 में हुए तीन बाद के आम चुनावों में जारी रही ।
1968 और 1969 में कुछ विधान सभाओं के समय से पहले भंग होने के कारण यह चक्र बाधित हो गया। 1970 में लोकसभा को समय से पहले ही भंग कर दिया गया और 1971 में नए चुनाव हुए। पूरे देश में एक साथ चुनाव एक अच्छा विचार है लेकिन विचार को साकार करने के लिए न केवल आपसी सहमति और राजनीतिक सहमति की आवश्यकता होगी, बल्कि व्यापक राष्ट्रीय हित में कार्य करने के लिए एक दृढ़ संकल्प की भी आवश्यकता होगी। सरकार को सभी हितधारकों के साथ मिलकर उन मुद्दों के प्रभावी समाधान के साथ काम करना चाहिए जिन पर चिंता व्यक्त की जा रही है।