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भारतीय राजनीति में उपनामों की परंपरा - डॉ अतुल मलिकराम
भारत हो या विश्व का कोई भी देश, राजनीति में राजनेताओं को दिए जाने वाले उपनाम केवल संबोधन के लिए नहीं होते, बल्कि जनता के मन में बसे उनके व्यक्तित्व, योगदान और छवि का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। आज़ादी के पहले या बाद में, यह परंपरा निरंतर चलती रही है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को बच्चे प्यार से चाचा नेहरू कहकर पुकारते थे। यह उपनाम उनके बच्चों के प्रति विशेष लगाव और उनकी कोमल, सहृदय छवि का प्रतीक बन गया। दूसरी ओर, देश को एकजुट करने वाले प्रथम उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को लौह पुरुष कहा गया। यह उपनाम उनके कठोर इरादों और देश को सैकड़ों रियासतों से जोड़ने की अद्वितीय क्षमता का परिणाम था।
बहुजन राजनीति में उपनामों का महत्व और भी अधिक दिखाई देता है। दलित आंदोलन के प्रमुख नेता जगजीवन राम को प्यार से बाबूजी कहा जाता था। उनकी संवेदनशीलता और सिद्धांतवादी राजनीति ने उन्हें देश के सबसे सम्मानित नेताओं में शामिल किया। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती को उनकी पार्टी और समर्थकों के बीच बहनजी के नाम से संबोधित किया जाता है, जो उन्हें एक संरक्षक और मार्गदर्शक के रूप में प्रस्तुत करता है। इसके अतिरिक्त डॉ. सोनेलाल पटेल के संदर्भ में दूसरी आज़ादी के महानायक जैसे उपनाम यह सिद्ध करते हैं कि क्षेत्रीय राजनीति में भी नेता केवल अपने संगठनात्मक कौशल से नहीं, बल्कि अपने वैचारिक संघर्षों से जनता में अमिट छाप छोड़ सकते हैं। सामाजिक न्याय को लेकर उनका संघर्ष उन्हें ऐसे नेताओं की श्रेणी में लाता है, जिन्हें लोग किसी विचारधारा की ताकत के रूप में याद करते हैं।
समाजवादी राजनीति में भी यह संस्कृति स्पष्ट रही है। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को उनके अनुयायियों और कार्यकर्ताओं ने नेताजी का दर्जा दिया, क्योंकि वे साधारण कार्यकर्ता से बढ़कर एक बड़े जननेता के रूप में उभरे। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लोग बुलडोजर बाबा कहकर बुलाने लगे हैं, जहां यह उपनाम उनके जीरो-टॉलरेंस मॉडल और माफिया के खिलाफ कार्रवाई के कारण लोकप्रिय हुआ।
यह सभी उदाहरण बताते हैं कि भारत की राजनीतिक संस्कृति में उपनाम केवल संज्ञा नहीं, बल्कि एक प्रतीक होते हैं जो किसी नेता की विचारधारा, कार्यशैली और जनसंपर्क को समझाने का सरल तरीका समझे जा सकते हैं। यह उपनाम कभी जनता देती है, कभी मीडिया, और कई बार विरोधी दल भी व्यंग्यात्मक रूप से फेंकू या पप्पू जैसे नाम गढ़ते हैं जो बाद में लोकप्रिय हो जाते हैं।
