भूमिगत कोयला खनन: भारत में पर्यावरणीय संतुलन और सामाजिक प्रगति की ओर निर्णायक कदम

जब पूरी दुनिया ऊर्जा संकट और संसाधनों की कमी से जूझ रही है, तब भारत जैसे विकासशील देश के लिए अपने खनिज संसाधनों का विवेकपूर्ण और पर्यावरण-संवेदनशील दोहन एक रणनीतिक आवश्यकता बन गया है। विशेष रूप से छत्तीसगढ़ जैसे खनिज-समृद्ध राज्य में, जहां देश का लगभग 20% कोयला उत्पादन होता है, भूमिगत खनन तकनीक ने एक नई दिशा दिखाई है। यह तकनीक न केवल खनिजों के कुशल दोहन की सुविधा देती है, बल्कि पर्यावरणीय क्षति, सामाजिक असंतुलन और जनविस्थापन को भी न्यूनतम करती है।

भारत सरकार द्वारा 6 अगस्त 2025 को जारी एक आधिकारिक प्रेस विज्ञप्ति में भूमिगत कोयला खनन को पर्यावरणीय, सामाजिक और भूमि उपयोग के दृष्टिकोण से अत्यधिक लाभकारी बताया गया है। विज्ञप्ति के अनुसार, भूमिगत खनन से सतही संरचनाओं को न्यूनतम क्षति होती है, जिससे कृषि भूमि, वन क्षेत्र और आवासीय इलाकों की सुरक्षा सुनिश्चित होती है। यह तकनीक धूल और ध्वनि प्रदूषण को भी काफी हद तक कम करती है, जिससे स्थानीय पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त, भूमिगत खनन का सतही प्रभाव सीमित होता है, जिससे अप्रत्यक्ष ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन भी घटता है।

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इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है आगामी पुरुंगा भूमिगत कोयला खदान, जो छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में प्रस्तावित है। यह परियोजना 2.25 मिलियन टन वार्षिक उत्पादन क्षमता के साथ विकसित की जा रही है |

यह परियोजना न केवल स्थानीय लोगों को रोजगार और आजीविका प्रदान करेगी, बल्कि उनके जीवन स्तर को भी बेहतर बनाएगी। विरोध की वर्तमान लहर, जो भूमि अधिग्रहण और पर्यावरणीय प्रभावों को लेकर फैलाई जा रही है, वस्तुतः तथ्यों से परे है। भूमिगत खनन परियोजनाएं सतही खनन की तुलना में कहीं अधिक पर्यावरण-अनुकूल और सामाजिक रूप से स्वीकार्य हैं।

इसलिए, यह आवश्यक है कि निर्णय केवल भावनाओं या राजनीतिक आरोपों के आधार पर नहीं, बल्कि तथ्यों और दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए लिए जाएं। पुरुंगा खदान जैसी परियोजनाएं भारत को ऊर्जा आत्मनिर्भरता, पर्यावरणीय संतुलन और सामाजिक समृद्धि की दिशा में मजबूती से आगे बढ़ाने में सहायक होंगी।

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